कहा जाता है कि शौनक आदि ऋषियों को सूत जी ने अट्ठारह पुराणों की कथा और मर्म का यही उपदेश दिया था। द्वापर में श्री कृष्ण के भाई बलराम भी यहाँ आए थे और यज्ञ किया था। प्राचीनकाल में इस सुरम्य स्थल का वृहद् भू-भाग वनाच्छादित था। शान्त और मनोरम वातावरण के कारण यह अध्ययन, मनन और ज्ञानार्जन हेतु एक आदर्श स्थान है।
यज्ञवाटश्व सुमहान् गोमत्या नैमिषे वने ।
आज्ञाप्यतां महाबाहो तद्धि पुण्यमनुत्तमम् ।।
-वाल्मीकि- रामायण
प्राचीन और घर-घर में प्रचलित श्री सत्यनारायण भगवान की कथा का प्रवर्तन नैमिषारण्य की पावन धरा से ही हुआ, जिसका प्रारम्भ नैमिषारण्य के उल्लेख के साथ होता है-
एकदा नैमिषारण्ये ऋषय: शौनकादय: ।
प्रपच्छुर्मुनय: सर्वे सूतं पौराणिकं खलु ।।
एक बार भगवान विष्णु एवं देवताओं के परम पुण्यमय क्षेत्र नैमिषारण्य में शौनक आदि ऋषियों ने भगवत्-प्राप्ति की इच्छा से सहस्र वर्षो में पूरे होने वाले एक महान यज्ञ का अनुष्ठान किया।
-श्रीमद्भागवत महापुरण - प्रथम स्कन्ध
नैमिषारण्य का उल्लेख कूर्म पुराण में मिलता है, जिसमें इसे तीनों लोकों में प्रसिद्ध बताया गया है -
इदं त्रैलोक्य विख्यातं, तीर्थ नैमिषमुत्तमम् ।
महादेव प्रियकरं, महापातकनाशनम् ।।
जहाँ श्रीदेवीभागवत में नैमिषारण्य स्थित चक्रतीर्थ एवं पुष्कर को सर्वश्रेष्ठ तीर्थ कहा गया है, वहीं आस्थावानजन ऐसा विश्वास करते है कि बदरीनाथ व केदारनाथ धाम की यात्रा नैमिषारण्य की यात्रा के उपरान्त ही पूर्ण होती है।
श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने नैमिषारण्य का माहात्म्य-निदर्शन करते हुए तभी तो कहा है-
तीरथ वर नैमिष विख्याता ।
अति पुनीत साधक सिधि दाता ।।
ऐसे विशिष्ट माहात्म्य के कारण ही नैमिषारण्य को महिमामण्डित तीर्थ-स्थल के रूप में सर्वत्र मान्यता प्राप्त है। इसी कारण यहाँ प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में दूर-दूर से श्रद्धालुजन दर्शनार्थ आते हैं। चक्रतीर्थ, भूतेश्वरनाथ मन्दिर, व्यासगद्दी, हवनकुण्ड, ललितादेवी का मन्दिर, पंचप्रयाग, शेष मन्दिर, क्षेमकाया मन्दिर, हनुमानगढ़ी, शिवाला-भैरव जी मन्दिर, पंच पाण्डव मन्दिर, पुराण मन्दिर माँ आनन्दमयी आश्रम, नारदानन्द सरस्वती आश्रम-देवपुरी मन्दिर, रामानुज कोट, अहोबिल मठ, परमहंस गौड़ीय मठ आदि के साथ ही लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित मिश्रिख व दधीचिकुण्ड तथा 12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हत्याहरण तीर्थ नैमिषारण्य के प्रमुख आकर्षण है।
ब्रहमा के चक्र की नेमि के शीर्ण होने से वह मुनि-पूजित वन नैमिष नाम से विख्यात हुआ।
तभी से नैमिषारण्य ऋषियों की तपस्या के योग्य स्थान बन गया।
-शिवपुराण